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इन्द्रा॑य त्वा॒ वसु॑मते रु॒द्रव॑त॒ऽइन्द्रा॑य त्वादि॒त्यव॑त॒ऽइन्द्रा॑य त्वाभिमाति॒घ्ने। श्ये॒नाय॑ त्वा सोम॒भृते॒ऽग्नये॑ त्वा रायस्पोष॒दे ॥३२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑य। त्वा॒। वसु॑मत॒ इति॒ वसु॑ऽमते। रु॒द्रव॑त॒ इति॑ रु॒द्रऽव॑ते। इन्द्रा॑य। त्वा॒। आ॒दि॒त्यव॑त॒ इत्या॑दित्यऽव॑ते। इन्द्रा॑य। त्वा॒। अ॒भि॒मा॒ति॒घ्न इत्य॑भिमाति॒ऽघ्ने। श्ये॒नाय॑। त्वा॒। सो॒म॒भृत॒ इति॑ सोम॒ऽभृते॑। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। रा॒य॒स्पो॒ष॒द इति॑ रायस्पोष॒दे ॥३२॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

जो राज्य व्यवहार सभा के ही आधीन हो तो किसलिये प्रजाजनों को सभापति का स्वीकार करना चाहिये, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापते ! (वसुमते) जिस कर्म में चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य सेवन कर अच्छे-अच्छे विद्वान् होते हैं, (रुद्रवते) जिस में चवालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य सेवन करते हैं, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययुक्त पुरुष के लिये (त्वा) आप को ग्रहण करते हैं। (आदित्यवते) जिसमें अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य्य सेवन कर सूर्य्यसदृश परम विद्वान् होते हैं, उस (इन्द्राय) उत्तम गुण पाने के लिये (त्वा) आप के (अभिमातिघ्ने) जिस कर्म में बड़े-बड़े अभिमानी शत्रुजन मारे जायें, उस (इन्द्राय) परमोत्कृष्ट शत्रुविदारक काम के लिये (त्वा) आप (सोमभृते) उत्तम ऐश्वर्य धारण करने हारे (श्येनाय) युद्धादि कामों में श्येनपक्षी के तुल्य लपट-भपट मारनेवाले (त्वा) आप (रायस्पोषदे) धन की दृढ़ता देने के लिये और (अग्नये) विद्युद् आदि पदार्थों के गुण प्रकाश कराने के लिये (त्वा) आपको हम स्वीकार करते हैं ॥३२॥
भावार्थभाषाः - जो इन्द्र, अग्नि, यम, सूर्य, वरुण और धनाढ्य के गुणों से युक्त, विद्वानों का प्रिय, विद्या का प्रचार करनेवाला सबको सुख देवे, उसी को राजा मानना चाहिये ॥३२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राज्यव्यवहारः सभाधीन एव तर्हि कस्मै प्रयोजनाय प्रजापुरुषैः सभापतिस्स्वीकार्य्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (वसुमते) बहवो वसवश्चतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्यसम्पन्ना विद्वांसो विद्यन्ते यत्र तस्मै कर्म्मणे (रुद्रवते) प्रशस्ताः कृतचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्या विद्वांसो वीराः शत्रुरोदयितारो रुद्रा भवन्ति यत्र तस्मै (इन्द्राय) परमविद्याप्रकाशेनविद्याविदारकाय (त्वा) त्वाम् (अभिमातिघ्ने) येनाभिमानयुक्ताः शत्रवो हन्यन्ते तस्मै (श्येनाय) श्येनवत् प्रवर्त्तमानाय (त्वा) त्वाम् (सोमभृते) यः सोममैश्वर्य्यसमूहं बिभर्त्तीति तस्मै (अग्नये) विद्युदाद्याय (त्वा) त्वाम् (रायः) धनस्य (पोषदे) पुष्टिप्रदाय। सुपां सुलुग् [अष्टा०७.१.३९] ङेः स्थाने शे इत्यादेशः ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.९.४.९-१०) व्याख्यातः ॥३२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापते ! वसुमते वयं रुद्रवत इन्द्राय त्वा आदित्यवत इन्द्राय त्वा अभिमातिघ्न इन्द्राय त्वा सोमभृते श्येनाय त्वा रायस्पोषदेऽग्नये त्वा त्वां वृणुमः ॥३२॥
भावार्थभाषाः - य इन्द्रानिलयमार्काग्निवरुणचन्द्रवित्तेशानां गुणैर्युक्तो विद्वत्प्रियो विद्याप्रचारी सर्वेभ्यः सुखं दद्यात्, स एव सर्वै राजा मन्तव्य इति ॥३२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - इंद्र (ऐश्वर्यवान) , अग्नी (ज्ञानी) , सूर्य (तेजस्वी) , वरुण (श्रेष्ठ) , यम (नियंता) , लक्ष्मीने युक्त, विद्वानांना प्रिय, विद्येचा प्रसार करणारा व सर्वांना सुख देणारा अशा व्यक्तीला राजा मानावे.